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Tuesday 29 March 2016

अहंकार !

🌷 तुकोबांची शब्दरत्ने 🌷

मुके होता काय पदरिचे जाते / मूर्ख ते भोगिते मी मीपण //1//
आपुलिये घरी मैंद होउनि बैसे / कवणासी ऐसे बोलो नको //2//
तुका म्हणे तुम्हा सांगतो मी खूण / देवासी ते ध्यान लावुनि बैसा //3//

उपरोक्त अभंगात तुकोबांनी सतत स्वताचा बडेजाव सांगणार्या मुर्खांना फटकारले आहे. आपल्या अवतीभोवती काही मंडळी अशी असतात की ती कुठेही गेले की सतत मी, माझे, माझ्यामुळे असा स्वताचा बडेजाव मिरवत असतात. या नालायकांना एवढीही अक्कल नसते की इतर लोकांच्याही काही भावना असतात. आपण त्यांचे म्हणने सुद्धा ऐकून घ्यायला हवे. कोणताही विषय काढा तो अशा लोकांशी संबंधीत असो किंवा नसो अतिशय अहंकारामुळे ही मंडळी " हो हो हे तर काहिच नाही या क्षेत्रात तर मी असे असे केले आहे " अशी बाश्कळ बडबड करतात. परिणामी अशा माणसांना बाहेरचेच काय पण घरचे लोकही वैतागून जातात आणि हळूहळू ही मंडळी एकटी पडत जातात. त्यांना लोक टाळायला लागतात. त्याला पाहिले की पाहून न पाहिल्यासारखे करतात किंवा रस्ता बदलून निघून जातात.

अशा अहंकारी आणि आत्ममग्न लोकांना तुकोबांचे सांगणे आहे की- अरे बाबा कुठेही गेले की सारखे मी मी करण्यापेक्षा तू मुका होउन बसलास तर तुझ्या बापाचे काय जाते? सारखे मी मी पण करणे आणि तो मी पणा भोगणे हे मुर्खांचे लक्षण आहे. कोणाकडेही जाउन स्वताची बडेजाइ मारण्यापेक्षा आपल्या आपल्या घरी मैंदासारखा गप्प बस ना ? कशाला इतराना अहंकाराने वागवून तुझा मीपणा ऐकवून त्रास देतोस?

अशा अहंकारी आणि आत्ममग्न लोकाना शेवटी तुकोबा एक मोलाचा सल्ला देतात की बाबारे मी तुला एक खूण सांगतो अर्थात उपाय सांगतो की आपल्या घरी शांतपणे देकाचे चिंतन करत बस किंवा ध्यान लाउन बस पण उगाच कुठेही जाउन मीपणाचा वृथा अहंकार पाजळू नकोस.

बांधवांनो तुकोबांनी जसे खोट्या दांभिक लोकांवर जसे शाब्दिक फटकारे ओढले तसे ते अहंकारी आणि इतरांना कमी लेखणार्या अतिशहाण्या लोकांवरही ओढले. बरेच लोक थोड्याफार ज्ञानाच्या जोरावर आपण खूप शहाणे झालो असा आव आणत इतरांना तुछ लेखण्याचे काम करत असतात. अशा अहंकारी लोकांसाठी तुकोबांनी अजून एका अभंगात फार चांगले फटकारले आहे. ते म्हणतात की- "कोडियाचे गोरेपण / तैसे अहंकारी ज्ञान." म्हणजेच अहंकारी मणुष्य कितीही ज्ञानी असला तरी त्याला स्वताला आणि समाजालाही त्याच्या ज्ञानाचा फायदा होत नाही. जसे कोड फुटलेला मणुष्य इतर सामान्य लोकांपेक्षा कितीही गोरे दिसत असले तरी त्यांच्या गोरेपणाचा फायदा त्यांना काहिही नसतो. उलट अशा लोकांपासून इतर लोक दूरच पळतात. त्याचे गोरेपण हे सौंदर्याच्या कोणत्याही व्याखेत बसत नाही. तसेच आपल्या ज्ञानाचा अहंकार असणार्या माणसाला त्याच्या ज्ञान असण्याचा काहिही फायदा नसतो.

तेव्हा अशा लोकानी तुकोबांचा हा उपदेश आपल्या आचरणात आणावा अन्यथा कोड फुटलेल्या व्यक्तीला पाहून जसे लोक दूर पळतात तसे अशा अतिशहाण्यांचा मीपणा पाहून लोक यांच्यापासून दूर जातील.

(कायम आपलंच तुणतुणं वाजवणार्या मुर्खांच्या तोंडावर हा अभंग फेका आणि मग पाहा त्याचे तोंड कसे होते ते पहा)

5 comments:

  1. फारच छान डोळ्यात अंजन घालणारा लेख👌👌👌👌👌

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  2. अहंकार का और एक रुप by Osho
    ✩✩✩✩✩✩✩✩✩✩✩
    तुम देखो विनम्र आदमियों को,
    जो कहते फिरते हैं कि मैं तो आपके पैर की धूल हूं।


    मैं जबलपुर में जब पहली दफा गया तो मेरे पड़ोस में एक सज्जन रहते थे--हरिदादा। उनको पड़ोस के लोग हरिदादा कहते थे, क्योंकि उनको रहीम के दोहे बड़े याद थे और हर चीज में वे दोहा जड़ देते थे रहीम का। सो उनकी ख्याति एक धार्मिक आदमी की तरह थी। और हर एक को उपदेश देते थे।


    जब मैं पहुंचा तो स्वभावतः उन्होंने मुझे भी उपदेश देने की कोशिश की। और उनको माना जाता था वे बड़े विनम्र हैं। और वे विनम्रता की बड़ी बातें करते थे। लेकिन उन्हें मेरे जैसा आदमी पहले मिला नहीं होगा। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तो आपके पैर की धूल हूं। मैंने कहा, "वह तो मुझे दिखाई ही पड़ रहा है। आप बिलकुल पैर की धूल हैं! आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं।'


    वे एकदम नाराज हो गये कि आप क्या बात कहते हैं!


    मैंने कहा, "मैं तो वही कह रहा हूं जो आपने कहा। मैंने तो एक शब्द भी नहीं जोड़ा। आप ने ही कहा, आपने ही शुरू किया। मैंने तो सिर्फ स्वीकृति दी कि आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। मैं देख ही रहा हूं आपका चेहरा बिलकुल धूल है! आपकी समझ बिलकुल साफ है, आपने ठीक पहचाना।


    वे तो ऐसे नाराज हुए कि फिर दुबारा मुझसे बात न करें। रास्ते में मिल जाएं, मैं जयराम जी करूं तो जवाब न दें। मैं भी यूं छोड़ देने वाला नहीं था। मुंह फेर कर निकलना चाहें तो मैं उनके चारों तरफ चक्कर लगाऊं कि नमस्कार, कि आप उस दिन बिलकुल ठीक कह रहे थे, आप बिलकुल पैर की धूल हैं!


    अहंकार क्या-क्या भाषाएं सीख लेता है! वे भूल गये सब चौपाइयां। सब चौपाइयां चौपाए हो कर भाग खड़ी हुईं। फिर रहीम वहीम के दोहे उन्हें याद न रहे। नहीं तो वे बड़े दोहे दोहराते थे। और मोहल्ले के लोग भी कहने लगे कि मामला क्या है। मुझसे पूछने लगे।


    एक डॉक्टर दत्ता सामने ही रहते थे, वे मुझसे पूछने लगे कि आपने कर क्या दिया? जब से आप आए हो, हरिदादा बचे-बचे फिरते हैं। और आपका तो नाम लेते ही गरम हो जाते हैं, हमने इनको कभी गर्म नहीं देखा।


    मैंने कहा, "वे गरम इसलिए हो जाते हैं कि मैंने उनकी बात मान ली, आप लोगों ने मानी नहीं। वे कहते थे हम आपके पैर की धूल हैं, आप वे कहते थे कि नहीं-नहीं अरे हरिदादा ऐसा कहीं हो सकता है! आप तो सिरताज हैं! आप तो बड़े धार्मिक साधु पुरुष हैं! वे इसलिए तो बेचारे कहते थे कि आप कहो साधु-पुरुष हैं। और मैंने उनकी मान ली, इससे मुझसे नाराज हैं। इससे मेरी जयराम जी का भी उत्तर नहीं देते।


    मगर मैं भी कुछ यूँ छोड़ देने वाला नहीं हूं। मैं दस-पांच दफा दिन में मिल ही जाता हूं उनको। नहीं अगर मिल पाते तो दरवाजे पर दस्तक देता हूं कि हरिदादा जयराम जी! वे मुझे देख कर ही एकदम गरमा जाते हैं। और गरमाने का कुल कारण इतना है कि मैंने वही स्वीकार कर लिया जो वे कहते हैं।'


    पांच सात साल में उनके पड़ोस में रहा, उनका सारा संतत्व खराब हो गया। क्योंकि जो-जो बातें वे कह रहे थे, सब उधार थीं, सब बासी थीं। उनमें कहीं कोई अर्थ न था।


    मगर इस तरह के तुम्हें हर गांव,
    हर देहात में, हर नगर में लोग मिलेंगे--जिन्होंने अपने अहंकार पर एक पतली सी झीनी विनम्रता की चादर ओढ़ा दी है। तुम जरा चादर खींच कर देखो; कुछ बहुत मोटी भी नहीं है, बिलकुल साफ झलक रहा है। अहंकार यह नया आभूषण बना लेता है। अहंकार की चालें बड़ी गहरी हैं। अहंकार बहुत सूक्ष्म है।


    ओशो पुस्तक:
    "ज्यों मछली बिन नीर"
    से संकलित

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  3. फारच छान आहे

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  4. अहंकार का जाल

    जितना कठिन काम हो, उतना अहंकार करने को आतुर हो जाता है। अहंकार सरल काम करने में जरा भी उत्सुक नहीं है। सरल काम अहंकार के लिए बिलकुल ही रुचिपूर्ण नहीं है। इसलिए अहंकार ऊंचाइयों की भाषा में सोचता है, विचार करता है। और स्वभावतः जब तुम ऊंचाइयों की भाषा में सोचना शुरू करो, तो अपना बौनापन भी दिखाई पड़ेगा। तुम बौनी नहीं हो, कोई बौना नहीं है अहंकार तुम्हें बौना बना देता है। पहले अहंकार एक शिखर खड़ा कर देता है सामने बहुत ऊंचाई पाने के लिए एक महत्वाकांक्षा। फिर जब लौटकर अपनी तरफ देखते हो तो पाते हो मैं इतना छोटा, मेरे हाथ इतने छोटे, इस बड़े आकाश को मैं कैसे पा सकूंगा? तब तड़प पैदा होती है। यह अहंकार का रोग है।


    न तो कोई ऊंचाई पानी है; परमात्मा ऊंचा नहीं है, परमात्मा तुम्हारी निजता है। परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है। पाने की भाषा ही छोड़ो, पाया हुआ है। यही मेरी उदघोषणा है। परमात्मा को तुम छोड़ना भी चाहो, तो छोड़ न सकोगे, छोड़ने का कोई उपाय नहीं है, उसके बिना जीओगे कैसे?


    इसलिए तुमसे अब तक कहा गया है, परमात्मा को पाओ। मैं तुमसे कहता हूं, सिर्फ याद करो, पाने की बात ही नहीं करो। पाना कुछ है नहीं, पाया हुआ है। परमात्मा हमारी निजता का ही नाम है। परमात्मा तुम्हारे भीतर समाविष्ट है, तुम उसके भीतर समाविष्ट हो। जैसे बूंद में सागर है; एक बूंद का रहस्य समझ लो, तो सारे सागरों का रहस्य समझ में आ गया। जैसे एक एक किरण में सूरज है; एक किरण पहचान ली, तो प्रकाशों के सारे राज खुल गए! एक किरण का घूंघट उठ जाए, तो सारे सूरज का घूंघट उठ गया। ऐसे ही तुम किरण हो उस सूरज की। तुम बूंद हो उस सागर की। तुममें सब छिपा है। तुममें पूरा समाया है, पूरा पूरा समाया है!


    मैं यह नहीं कह रहा हूं कि परमात्मा दूर है, बहुत ऊंचाई पर है, चढ़ने हैं पहाड़ तब मिलेगा। मैं तुमसे यह कह रहा हूं, जरा आंख बंद करनी है, जरा चलना छोड़ना है, जरा दौड़ना बंद करना है; बैठ रहो और मिल जाए; चुप हो रहो और मिल जाए। मैं तो कठिन की बात ही नहीं कर रहा हूं।


    लेकिन अहंकार का जाल यही है। अहंकार कठिन में उत्सुक होता है, क्योंकि कठिन के सामने ही सिद्ध करने का मजा है। जितनी बड़ी कठिनाई को सिद्ध कर सकोगे, उतना ही अहंकार तृप्त होगा। 


    कहै वाजिद पुकार 


    ओशो 

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