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Thursday, 10 December 2015

आज भी कृष्ण का साक्षात्कार osho


आज भी  कृष्ण से साक्षात्कार की सम्भावना भाग १


“एक चर्चा में आपने कहा है कि श्रीकृष्ण की आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है, क्योंकि कुछ मरता नहीं। तो कृष्ण-दर्शन को संभावितता की हद में लाने के लिए कौन-सी “प्रासेस’ से गुजरना पड़ेगा? और साथ ही यह बताएं कि कृष्ण-मूर्ति पर ध्यान, कृष्ण-नाम का जप और कृष्ण-नाम के संकीर्तन से क्या उपासना की पूर्णता की ओर जाया जा सकता है?’

विश्व अस्तित्व में कुछ भी एकदम मिट नहीं जाता। और विश्व अस्तित्व में कुछ भी एकदम नया पैदा भी नहीं होता है। रूप बदलते हैं, आकृतियां बदलती हैं, आकार बदलते हैं, लेकिन अस्तित्व गहनतम रहस्यों में जो है, वह सदा वैसा ही है। व्यक्ति आते हैं, खो जाते हैं, लहरें उठती हैं सागर पर, विलीन हो जाती हैं, लेकिन जो लहर में छिपा था, जो लहर में था, वह कभी विलीन नहीं होता।


कृष्ण को हम दो तरह से देखेंगे तो समझ में आ जाएगा। और अपने को भी फिर हम दो तरह से देख पाएंगे। एक हमारा लहर-रूप है, एक हमारा सागर-रूप है। लहर की तरह हम व्यक्ति हैं, सागर की तरह हम ब्रह्म हैं। कृष्ण का जो चेहरा देखा गया, कृष्ण का जो शरीर देखा गया, कृष्ण की जो वाणी सुनी गई, कृष्ण के जो स्वर सुने गए, वे लहर-रूप हैं। लेकिन जो इन वाणियों, इन नृत्यों, इस व्यक्तित्व के पीछे जो खड़ा है, वह सागर-रूप है। वह सागर-रूप कभी भी नहीं खोता है। वह सदा अस्तित्व के प्राणों में निवास करता है, वह सदा है ही। वह कृष्ण नहीं हुए थे तब भी था और जब कृष्ण नहीं हैं तब भी है। जब आप नहीं थे  तब भी था, आप जब नहीं होंगे तब भी होगा। ऐसा समझें कि जैसे कृष्ण एक लहर की तरह जागे हैं, नाचे हैं सागर की छाती पर, किरणों में, सूरज की हवाओं में और फिर सागर में खो गए हैं।

हम सब भी ऐसे ही हैं। थोड़ा-सा फर्क है। कृष्ण जब लहर की भांति नाच रहे हैं, तब भी वह जानते हैं कि वह सागर हैं। हम जब लहर की भांति नाच रहे हैं, तब हम भूल जाते हैं कि हम सागर हैं। तब हम समझते हैं कि लहर ही हैं। चूंकि हम अपने को लहर समझते हैं, इसलिए कृष्ण को भी कैसे सागर समझ सकते हैं! फिर लहर जिस रूप में प्रकट हुई थी, जिस आकृति और आकार में प्रकट हुई थी, उस आकृति और आकार का उपयोग किया जा सकता है, उस लहर के पुनर्साक्षात्कार के लिए। लेकिन खेल सब छाया-जगत का है। दोत्तीन बातें खयाल में लेंगे तो बात पूरी स्पष्ट हो सकेगी।

कृष्ण के सागर-रूप से आज भी, अभी भी साक्षात्कार किया जा सकता है। महावीर के सागर-रूप से भी साक्षात्कार किया जा सकता है, बुद्ध के सागर-रूप  से भी साक्षात्कार किया जा सकता है। जिस रूप में वे प्रकट हुए थे कभी, जो आकृति उन्होंने ली थी, उसका उपयोग इस सागर-रूप साक्षात्कार के लिए किया जा सकता है। वह माध्यम बन सकता है। मूर्तियां सबसे पहले पूजा के लिए नहीं बनी थीं। मूर्तियां सबसे पहले “इजोटेरिक साइंस’ की तरह बनी थीं। एक गुप्त-विज्ञान की तरह बनी थीं। उन मूर्तियों में, जो व्यक्ति उस रूप में जिआ था वह वायदा किया था कि इस मूर्ति पर यदि ध्यान “फोकस’ किया गया, इस मूर्ति पर पूरी तरह ध्यान किया गया, तो मेरे सागर-रूप अस्तित्व से संबंध हो सकेगा।

कभी रास्ते पर आपने किसी मदारी को “हिप्नोसिस’ का एक छोटा-सा खेल करते देखा होगा। छोटा-सा खेल है कि किसी लड़के को मदारी लिटा देता है, उसकी छाती पर एक ताबीज रख देता है, ताबीज रखने से वह बेहोश हो जाता है। बेहोश होने के बाद वह मदारी उस लड़के से बहुत-सी बातें पूछता है जो वह बताना शुरू कर देता है। आपके पास वह मदारी आता है और कहता है, कान में अपना नाम बोल दें। आप नाम बोलते हैं, वह लड़का वहां से चिल्ला देता है कि यह नाम है इस आदमी का। आप इतने धीमे बोलते हैं कि उस लड़के को सुनने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि आपके बगल का पड़ोसी भी नहीं सुन पाया है। वह मदारी कहता है, आपके खीसे में नोट रखा हुआ है, इसका नंबर कितना है? और वह लड़का नोट का नंबर बोल देता है। वह मदारी आपसे कहेगा कि यह ताबीज बड़ा अदभुत है। इस ताबीज के बदौलत इस लड़के की इतनी सामर्थ्य हो गई। बस यहीं वह धोखा देता है। फिर वह चार-आठ आने में ताबीज बेच भी लेता है। आप घर लेकर आठ आने का ताबीज छाती पर रखकर लेट जाते हैं, लेकिन कुछ नहीं होता। नहीं होगा। ताबीज से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन उस लड़के के संबंध में लेना-देना था।

“पोस्ट हिप्नोटिज्म’ की एक छोटी-सी प्रक्रिया यह है कि यदि किसी व्यक्ति को गहरी बेहोशी में डाल दिया जाए–जो कि बहुत सरल है–उस गहरी बेहोशी की हालत में यदि उसे कहा जाए कि यह ताबीज ठीक से देख लो, और जब भी इस ताबीज को हम तुम्हारी छाती पर रखेंगे तब तुम पुनः बेहोश हो जाओगे, तो उसकी अचेतन की गहराइयों में यह सुझाव बैठ जाता है। फिर कभी भी उस व्यक्ति के ऊपर वह ताबीज रखा जाए, वह तत्काल बेहोश हो जाएगा। और बेहोशी में हमारे मस्तिष्क की अचेतन

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